स्वामी विश्वपाल सरस्वती और गुरुकुल कण्वाश्रम

एक आध्यात्मिक यात्रा

सवामी विश्वपाल सरस्वती और गुरुकुल कण्वाश्रम उत्तराखंड राज्य के कोटद्वार शहर से लगभग 15 ककमी और हररद्वार से 50 ककमी दूर घने जंगल के बारे में मान्यता है कक प्राचीन काल में यहााँ ऋकियों की तपोस्थली में महकिि कण्व का आश्रम था जहााँ हस्तिनापुर के राजा दुष्यंत तथा शकुं तला के प्रणय से भरत का जन्म हुआ था। महाककि काकलदास द्वारा रकचत यह पौराकणक कथा “अकभज्ञान शाकुन्तलम्”, कजसे शकुं तला, द ररककिशन ऑफ शकुं तला, द साइन ऑफ शकुं तला का अनुिाद प्रायः सभी किदेशी भािाओं में हो चुका है। अकभज्ञान शाकुन्तलम् महाककि काकलदास दवारा रकचत एक संस्कृ त नाटक है कजसमें महाभारत की एक चररत्र शंकु तला की कहानी और कण्व आश्रम का उल्लेख ककया है। कजसे आमतौर पर ककसी भी काल का सबसे महान् भारतीय साकहस्तिक कायि माना गया है । भारत की आध्यास्तिक किरासत से रूबरू होने के कलए पूरी दुकनया से लोग साल भर यहााँ आते हैं। इसी आश्रम में डॉ0 किश्वपाल जयन्त द्वारा गुरुकुल कण्वाश्रम की स्थापना करायी गयी। भारतििि के प्रथम प्रधानमंत्री पंकडत जिाहरलाल नेहरू की 7 जून 1955 में सोकियत रूस की मॉस्को यात्रा में उनकी पुत्री कप्रयदकशिनी इंकदरा भी उनके साथ थी। 16 कदनों की इस यात्रा के समापन समारोह में उनके आकतथ्य में महाककि काकलदास द्वारा रकचत ग्रन्थ “अकभज्ञान शाकुन्तलम्” पर आधाररत एक चलकचत्र (क़िल्म) कदखाया गया। क़िल्म समाप्त होने के बाद रूस के प्रधानमन्त्री ने नेहरू से कहा कक पंकडत जी इस क़िल्म में िकणित बेहद सुंदर और सच्ची ऐकतहाकसक़ कहानी के बारे में हम आपसे जानकारी चाहते है कक भारत में कजस स्थान पर यह कथा घकटत हुई थी आजकल उस स्थान का नाम और लोकेशन आकद के बारे में कुछ जानकारी देने का कष्ट करें। पंकडत नेहरू को यह सुनकर आिग्लाकन हुई क्ोंकक उस समय िें महकिि कण्व, दुष्यंत, शकुं तला और भरत के नाम से ही पररकचत थे। कण्व आश्रम की ििु स्तस्थकत और कायिकलापों आकद से अनकभज्ञ पंकडत नेहरू ने उसी समय कनश्चय ककया कक स्वदेश लौटकर इस गौरि सथल कण्व आश्रम का पता लगाकर िहााँ एक सुन्दर स्मारक का कनमािण करायेंगे। 23 जून 1955 को पंकडत नेहरू ने स्वदेश लौटने पर उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री डॉ0 सम्पूणािनन्द को कण्व आश्रम प्राचीन स्मृकत रक्षाथि िहााँ एक स्मारक बनिाने का उत्तरदाकयत्व सौंप कदया। कजसके फलस्वरूप अिंत कठोर श्रम और अनुसंधान के उपरांत तत्कालीन किद्वत्जनों के परामशि से पौि शुक्ल परकतपदा संित् 2012 तदनुसार 1955 ई0 को डॉ0 सम्पूणािनन्द के आदेशानुसार लैंसडाउन से तत्कालीन किधायक श्री जगमोहन कसंह नेगी द्वारा कोटद्वार के कनकट कलालघाटी चौकीघाट (चौघाटा) नामक स्थान पर कण्व आश्रम के स्मारक का कशलान्यास ककया गया। उसके बाद देश में कई सरकारें आयीं और गईं लेककन कण्व आश्रम के किकास के कलए ककसी का ध्यान नहीं गया। कण्वाश्रम के संस्थापक किश्वपाल जयन्त का जन्म बृहस्पकतिार 15 अगि, 1947 (श्रािण शुक्ल चतुदिशी संित् 2004) को मुजफ्फरनगर कजले के ऐकतहाकसक गााँि शौरों (सोरम) के एक ककसान पररिार में माता कजयाबाई की कोख से कपता श्री चरणकसंह चौधरी के घर हुआ था। श्री चरणकसंह की छह सन्तान में बडी पुत्री सुश्री सुरेशों के बाद आपका जन्म हुआ, इसकलए दादा श्री होकशयार कसंह और दादी जी शैशिकाल में इस बालक को प्यार से लल्ला बुलाते थे तथा स्थानीय प्राइमरी स्कूल में इक़बाल के नाम से संबोकधत ककया जाता था। आपकी प्रारंकभक कशक्षा गााँि के स्थानीय स्कूल में हुई। बालक के गुण, कमि और स्वभाि देखकर आयि समाजी पररिार ने पुत्र को आयि महाकिद्यालय ककरठल में प्रिेश कदलाया जहााँ इनका उपनयन संस्कार किश्वपाल के नाम से हुआ। उपनयन संस्कार में 11 ििि की आयु में जनेऊ पहनाया जाता है और प्राथकमक कशक्षा हेतु किद्यारंभ होती है। यहीं के संस्कारों से प्रेररत होकर आपने ब्रह्मचयि धारण ककया। प्रथमा परीक्षा उत्तीणि कर आगे की पढाई के कलये आपने गुरुकुल महाकिद्यालय ज्वालापुर हररद्वार की सिोच्च श्रेणी “किद्याभास्कार” और आयुिेद भास्कर की उपाकध प्राप्त की। बचपन से ही ब्रह्मचारी किश्वपाल की अकभरुकच पढाई के साथ-साथ शारीररक बल अकजित करने के प्रकत अकधक रही है। गुरुकुल महाकिद्यालय ज्वालापुर के तपस्वी प्राचायि पंकडत लक्ष्मी नारायण के आध्यास्तिक किचारों से प्रेररत होकर आपने आसन, प्राणायाम आकद की कठोरतम श्रमसाध्य साधना की। आजीिन ब्रह्मचारी और योगसाधना में लीन होकर भारतीय संस्कृ कत का प्रचार प्रसार ककया। सोलह ििि की ककशोर अिस्था में ही आपने हाथी को बांधने िाली जंजीर को तोडना, छाती पर टर ैक्टर उतरिाना, मोटे-मोटे लोहे के सररया को गले और आाँख पर रखकर मोडना, सररया को हाथ पर लपेटकर चूकडयााँ बनाना, कााँच को हथेकलयों से पीसना आकद अद्भुत करतब कदखाना शुरु कर कदया था। 21 ििि की आयु में भारतििि के तत्कालीन महामकहम राष्टरपकत श्री िी. िी. कगरी ने आपके शस्ति परीक्षण से प्रभाकित होकर सन् 1968 ई0 में आपको आधुकनक भीम की सम्मानोपाकध से किभूकित ककया। सन् 1971 में आयि महाकिद्यालय ककरठल की स्वणि जयन्ती महोत्सि में आपने ब्रह्मचयि और प्राणायाम का ऐसा पररचय प्रिुत ककया कक उत्तरी भारत में किश्वपाल नाम अब ककसी पररचय का मोहताज नहीं रहा। गुरु-कशष्य परंपरा के तहत भारत की देिभूकम कहे जाने िाले ितिमान उत्तराखंड के कण्वाश्रम में माकलनी नदी के ककनारे सन् 1972 में आपने एक ऐसा आश्रम स्थाकपत ककया जहााँ योग, साधना और ध्यान के कलए एक परंपरा जारी है। उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री डॉ0 सम्पूणािनन्द जी के प्रयास से 1955 में यहााँ एक स्मारक के कशलान्यास के बाद सरकार द्वारा कोई किकास कायि नहीं कराया गया। िसंत पंचमी के अिसर पर ििि में के िल एक बार यहााँ एक कदिसीय मेला होता था। एक बार स्वामी रामानंद जी के कहने पर योकगराज बरह्मचारी किश्वपाल जयंत जी (आधुकनक भीम ) दो कदन के कलए यहााँ घूमने आये, कण्वाश्रम के मनोरम सौन्दयि को देखकर उनको लगा जैसे की िे अपने ही आश्रम में आ गए हो। ब्रह्मचारी जी को उनके कपछले जन्मों का स्मरण होने लगा। इसी स्थान पर तीन महीने मौन व्रत में रहकर एकांत शांत पकित्र स्थान कण्वाश्रम में योग साधना की और योग साधना के बाद कनश्चय ककया कक इस पकित्र स्थान और तपोमय िातािरण को सुरकक्षत करने के कलए यहााँ पर गुरुकुल कण्वाश्रम की स्थापना होनी चाकहए तभी इस पकित्र पराचीन िैकदक संस्कृ कत की रक्षा हो सकती है। 2 जुलाई 1972 में योकगराज किश्वपाल जयंत जी दो कशष्यों ब्रह्मचारी यशिीर और ब्रह्मचारी रामपाल को लेकर िैकदक प्राचीन गुरुकुलीय परम्परा को पोकित करने के कलए महकिि कण्व के तपोिन में पकित्र माकलनी नदी के ककनारे पहुाँचें, तत्समय इस स्थान का स्वरूप ककसी आश्रम की भााँकत न होकर खूाँखार जानिरों से भरे खतरनाक पहाडी जंगल के रूप में था। शेर, चीता, बाघ, रीछ, हाथी, सेई, सााँप कबच्छू जैसे जानलेिा जीि जन्तुओं के इस कनजिन जंगल में बडे-बडे कशकारी कदन में भी आने से घबराते थे। अपने कशष्यों के साथ यहााँ आकर ब्रह्मचारी जी ने सिि प्रथम महकिि कण्व, दुष्यंत शकुं तला और भरत के स्मारक जीणि-शीणि मंकदर के समीपस्थ खंडहर हुई कु टी में अपना आसन जमा कलया, और इस िैकदक आश्रम गुरुकुल महाकिद्यालय कण्वाश्रम की स्थापना की। इस गुरुकुल का कशक्षण माध्यम आयि भािा कहन्दी है। इसके अकतररि धमिकशक्षा, संस्कृ त, योगाभ्यास के साथ आधुकनक कििय जैसे- अंग्रेजी, गकणत, किज्ञान, इकतहास, भूगोल, नागररकशास्त्र एिं कम्प्प्यूटर कसखाने आकद की कशक्षा दी जाती है। इस संस्था का उद्देश्य अथिििेद के एक प्रकसद्ध मन्त्र से कलया गया है- “उपहरे गिरीण ां सांिमे च नदीन म्, गिय गिप्रो अज यत॥ - अथाित् पिितों की गुफाओं और नकदयों के संगम पर बुस्तद्धमान ज्ञानी जन उत्पन्न होते हैं तात्पयि यह है कक एकान्त, शीतल और शान्त स्थानों में साधना करने पर बुस्तद्ध सूक्ष्म और तीक्ष्ण हो जाती है और ककठन से ककठन कििय को शीघ्र ग्रहण कर लेती है। इस तरह के एकान्त िातािरण में रहते हुए प्राचीन िैकदक संस्कृ त िाङ्मय और योग के साथ-साथ आधुकनक कशक्षा द्वारा किद्याथी को चररत्रिान, किद्वान्, देशभि, मातृभि और स्वािलम्बी बनाना है। आयि महाकिद्यालय ककरठल गुरुकुल से डॉ0 किश्वपाल जी का किशेि लगाि रहा है क्ोंकक इक़बाल से किश्वपाल तथा किद्यालय की स्वणि जयन्ती महोत्सि में इन्हें किश्वपाल जयन्त नाम से अलंकृ त आयि महाकिद्यालय ककरठल में ही ककया गया। किद्यालय की स्वणि जयंती में इन्होंने आपने ब्रह्मचयि का प्रदशिन करते हुए गदिन/कण्ठ से सररया मोडना, हाथों से थाली फाडना, हथेली से कााँच पीसना, जंजीर तोडना और अपनी छाती पर टर ैक्टर चढिाना आकद करतब कदखाये थे। एक समय ऐसा भी था जब योगसाधना और बरह्मचयि से ककए गए शस्ति प्रदशिन के कारण ब्रह्मचारी किश्वपाल का यश चारों ओर फैल चुका था। सभी आिश्यक सुकिधाएाँ सुलभ थीं, लेककन मन अशांत और संसार से िैराग्य सा हो गया था। ऐसी स्तस्थकत में आप लगभग छह महीने एकांत िास में मौन रहकर साधना में चले गये कजससे ककसी से भी संपकि में न होने के कारण अ़ििाह फै ल गई कक किश्वपाल को शेर ने मार कदया। पररजन कचंकतत थे अत एि इन्हें तलाश कर अपने साथ घर ले आये लेककन योगसाधना, प्राणायाम आपकी जीिन की कदनचयाि बनचुकी थी। यहााँ से आप नेपाल यात्रा पर गये िहााँ के रंगशाला स्टेकडयम, काठमाण्डु में शस्ति प्रदशिन के दौरान कुछ चीनी लोगों ने कायिक्रम अव्यिस्तस्थत करने का प्रयास ककया लेककन नेपाल के राजा की उपस्तस्थकत में लगभग 35 हजार जनसमुदाय के बीच आपका शस्ति परीक्षण सफल रहा। ईष्याििश िहााँ ककसी ने ब्रह्मचारी जी को भोजन में स्लो पोइजन दे कदया। स्वदेश लौटने तक कमजोरी से शरीर टूटने लगा, शरीर का िजन 140 ककग्रा से घटकर मात्र 70 ककग्रा0 रह गया। हर संभि उपचार ककए गए अंततोगत्वा एक रात आाँखों की जयोकत और शारीररक चेतना बंद-सी हो गयी। सभी पररकचत लोगों को सूकचत कर कदया गया कक कल सूयोदय के बाद इनकी अंिेकष्ट कर दी जाएगी, लेककन प्रातः 4 बजे अचानक इनके शरीर में चेतना और आाँखों में ज्योकत आने की घटना से पररिार में अपार खुशी लौट आयी। इस घटना के बारे में आपने बताया कक मुझे अहसास हुआ कक जैसे एक लंबी जटाओं िाले संन्यासी महािा ने मेरी गदिन के नीचे हाथ रखकर कहा कक बेटा तुम्हें अभी तो बहुत कायि करना है, यह कहकर महािा अदृश्य हो गये। इस घटना के बाद आपके शरीर को गीले तौकलये से स्नान कराया गया, सभी के साथ कमलकर दैकनक यज्ञ ककया। उसके बाद दूध और ब्रेड का नाश्ता कदया गया। एक लंबे उपचार के बाद आप का स्वास्थ्य ठीक हो गया लेककन घरिालों ने बाहर जाने पर प्रकतबंध लगा कदया। खाली िि में व्यि रहने और परोपकार के कलए अपने पैतृक कृ कि ़िामि पर सन् 1970-71 में एक आयुिेकदक कचककत्सालय का संचालन शुरु ककया। अस्पताल की आय से आकथिक स्तस्थकत सुधरने लगी, क्षेत्र में प्रकसस्तद्ध हुई। कििाह के कलये ररश्तेदारों का दबाि पडने लगा कजसे कसरे से नकार कदया गया। अपने कृ कि फामि में ही एक आयुिेकदक किशाल औिधालय स्थाकपत की योजना के नक़्शे बन रहे थे, कक एक शाम आध्यास्तिक कचंतन में बैठे ब्रह्मचारी को अहसास हुआ कक िही संन्यासी महािा प्रकट हुए और गाल पर एक थप्पड मारकर बोले कक मैंने तुम्हें इसी कायि के कलए तो नहीं भेजा था। बरह्मचारी ने तत्कालीन कबना ककसी को कुछ बताये कण्व आश्रम के कलये प्रस्थान ककया और 2 जुलाई सन् 1972 में दो किद्याकथियों को साथ लेकर गुरुकुल स्थापना के कलए जुट गये लेककन िहााँ पर कुछ दुजिनों और पाखंकडयों द्वारा गुरुकुल में अडचनें पैदा करने का कु स्तत्सत प्रयास ककया जाता रहा। सन् 1973 ई0 में गुरुकुल के अतीि तीव्र प्रबुद्ध प्रकतभाशाली ब्रह्मचारी रामिीर का अपहरण कर कलया गया और आश्रम के पास अन्य जानिरों की हकियााँ डालकर यह कसद्ध करने का दुष्प्रयत्न भी ककया कक ब्रह्मचारी रामिीर को ककसी िन्यजीि ने मारकर खा कलया है। ब्रह्मचारी रामिीर के सगे भाई ब्रह्मचारी यशिीर शास्त्री तत्समय आश्रम के किद्याथी थे उन्होंने अपने पररजनों को ििुस्तस्थकत से अिगत कराते हुए बडे ही धैयि के साथ गुरुकुल के संचालन में अकिस्मरणीय सहयोग कदया। कण्व आश्रम के इस घने जंगल में ब्रह्मचारी जी का सामना खूाँखार शेर और हाकथयों के झुण्ड से हुआ, लेककन शकुं तला के पुत्र भरत की तरह ब्रह्मचारी जी कभी इन जानिरों से डरकर किचकलत नहीं होते हैं । िे इनके बीच में रहने के अभ्यि हो चुकें है। इसकलए इनके कायिकलापों / गकतकिकधयों के अनुसार इन्हें महकिि कण्व का अितार कहना कोई अकतशयोस्ति नहीं होगी। योग कसस्तद्ध और अध्याि के कारण बरह्मचारी जी को कई घटना का अहसास हो जाता था। एक बार िह अपने कशष्यों रामपाल, यशिीर और कदल्ली से आये कुछ आगंतुकों के साथ माकलनी नदी का अिंत मनोहारी दृश्य देखने कनकले हुए थे बातों-बातों में 10 ककमी0 दूर कनकल गये, पहाडी पर ऊाँ ची नीची चढाई में थक कर सभी चूर हो चुके थे उसी समय हल्की-हल्की सुगन्ध कलए एक तेज हिा के झोंके ने सभी की थकािट को दूर करते हुए शरीर को स्फू कति से भर कदया। इन्होंने महसूस ककया कक प्रदूिण रकहत औिधीय पौधों की सुगंध कमकश्रत िायु में अिश्य ही अद्भुत शस्ति है। यहीं पर दूसरी घटना में नदी के भरमण के समय ही अहसास हुआ कक इनकी पूज्या दादी सामने आयीं और कहनी लगीं बेटा, मैं तो तुझसे कमलने आयीं थी। मैं जा रही हाँ, इतने शब्द कहकर लुप्त हो गयी। इस दृश्य ने इन्हें झकझोर कदया; आाँखों से अश्रुधारा बहने लगी। सभी लोगों ने पास आकर हाल जानना चाहा। इन्होंने पूरे िृत्तांत के साथ बताया कक मेरी पूज्या दादी जी संसार छोडकर चली गयीं । इस दृश्य के बाद भ्रमण को छोडकर अपने गााँि आये तो इनकी माता जी ने बताया कक कजस कदन दादी जी ने शरीर छोडा तुझे याद करके बेहोश ही गईं, लगभग 20 कमनट के बाद आाँखें खोलीं और बोलीं कक मैं तो अपने लल्ला से कमलने गयी थी बहुत दूर पहाडों पर कमला। मैं उससे कमलकर आ गई हाँ। इन्ही शब्दों के साथ दादी ने शरीर छोड कदया। तत्समय से विश्वपाल जयन्त ने अपना जीिन कण्वाश्रम में गुरुकुल के उत्थान, योग विक्षा और आयुिेद विवकत्सा के क्षेत्र में समवपित कर वदया। परमाथि वनके तन आश्रम के अध्यक्ष योगी गुरु स्वामी विदानंद सरस्वती से दीक्षा लेकर स्वामी विश्वपाल सरस्वती हो गये। भारत के अलािा अन्य कनाडा आवद देिों में भी योग के प्रिार प्रसार के वलए उनके कैं प लगाए जाते हैं।

लेखक

डॉ. यशपाल सिंह, सलाहकार

लेखक का योगदान

इस आध्यात्मिक ग्रंथ के रचयिता ने स्वामी जी के जीवन, शिक्षाओं और आध्यात्मिक यात्रा को बहुत ही सुंदर ढंग से प्रस्तुत किया है। उनके इस अमूल्य योगदान ने इस पवित्र ज्ञान को संरक्षित किया है।